[vc_row][vc_column][vc_column_text]महर्षि दयानंद सरस्वती (1824 ई.-1883 ई.) भारतीय नव जागरण के पुरोधा तथा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद का जन्म सन 1824 ई. में गुजरात प्रांत के मैरवी जनपद के अंतर्गत टंकारा नामक ग्राम में एक कुलीन, सम्पन्न ब्राहाण परिवार में पिताश्री करसन जी के यहाँ हुआ| बाल्यकाल में उन्हीने परम्परागत रीति से विद्याध्ययन किया| शिवरात्रि के व्रत का पालन करते हुए जब बालक मूलशंकर (दयानन्द सरस्वती) ने एक चूहे को शिव पिंडी पर चढ़ कर प्रसाद खाते हुए देखा तो उनकी मूर्तिपूजा से आस्था समाप्त हो गई| इसी प्रकार छोटी बहिन की आकस्मिक मुत्यु ने उन्हें मानव जीवन की नश्वरता का अहसास कराया| वह भरी जवानी में सन्यासी बन गए और गृह व परिवार त्याग दिया तथा स्वजीवन को लोक हितार्थ अर्पित कर दिया| स्वामी जी ने दो वर्षो तक मथुरा में वेदों के मर्म स्वामी विरजानंद जी दण्डी के सानिध्य में रहकर, अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि आर्य ग्रंथो का अध्ययन किया तत्पश्चात गंगा तट से जुड़े प्रान्तों में भ्रमण कर वैदिक धर्म का उपदेश देते रहे|
सन 1877 ई. में उन्होंने बम्बई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की| सन 1877 ई. में धर्म-प्रचारार्थ विभिन्न प्रदेशो के नगरो में गये जिनमे अपने नगर फर्रुखाबाद में व इसी जनपद के अन्य स्थानी में भी धर्म प्रचार किया और वैदिक शिक्षाओ को प्रचारित कर जनमानस में वेद प्रतिपादित सत्य सनातन वैदिक धर्म का उपदेश देते रहे| यहाँ स्वामीजी ने आठ बार प्रवास किया उनके द्वारा आर्य समाज फर्रुखाबाद की स्थापना 12 जुलाई, 1879 को संपन्न हुई| स्वामी जी सच्चा राष्ट्रवादी थे| स्वधर्म, स्वभाषा, स्वसंस्कृति तथा स्वराष्ट्र की अलख जगाने हेतु उन्होंने गैरक्षा का महत्व बतलाया| स्त्री शिक्षा, भारतीय समाज में उसकी महत्ता और सहभागिता पर विशेष बल दिया| देश की भावनात्मक एकता के सूत्र में बाधने के लिए हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने की प्रेरणा दी| महर्षि दयानन्द सरस्वती मूलतः धार्मिक पुरुष थे, परन्तु उन्होंने धर्म की जो व्याख्या की वह किसी मनुष्य द्वारा संस्थापित मत या सम्प्रदाय का पर्याय न होकर मानव के सर्वागीं उत्थान में उन गुणों की समष्टि का नाम है, जिन के कारण मनुष्य में सच्ची मानवता का विकास होता है| उनकी दृष्टि में मनुष्य वही है, जो अपने तुल्य अन्यो को भी समझे तथा सबके प्रति सत्य, न्याय व धर्म का व्यवहार करे|
संक्षिप्त परिचय
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफेसर सर मोनियन विलियम्स द्वारा मुंबई में पूछे जाने पर उनकी दृष्टि में धर्म की क्या परिभाषा हो सकती है, दयानन्द सरस्वती ने कहा कि “धर्म वह है जो सत्ययुक्त हो, न्याय की भावना उसमे समाविष्ट हो और जिसमे पक्षपात लेशमात्र भी न हो तथा जो सृष्टिक्रम के नितांत अनुकूल हो|” पीड़ित, शोषित, दलितवर्ग के अधिकारों का रक्षा में स्वामी जी सदा आगे रहे शताब्दियों से अत्याचार व दमन से पीड़ित नारी व शुद्रो के सभी सामाजिक अधिकारों के प्रबल समर्थक थे| इन्ही के अधिकारों की रक्षा का मुद्दा उन्होंने वेद पठन-पाठन के अधिकार को एक प्रतीक के रूप में चुन कर उठाया| स्वयं सन्यासी के रूप में प्रचलित इस धारणा को स्वीकार नहीं किया कि समाज में इनका कोई दायित्व नहीं होता और मात्र वैराग्य धारणा करना तथा अध्यात्म चिंतन ही उनके आश्रम का एकमात्र लक्ष्य है| उसके विपरीत उन्होंने स्पष्ट किया कि जिस मातृभूमि के अन्न एवं जल से उनका जीवन पोषित हुआ, उसके प्रति कर्तव्य भावना का वहन करना ही सन्यासी का लक्ष्य होना चाहिए| दयानन्द ने मानव में विद्यमान विवेक, बुद्धि तथा तर्कयुक्त चिंतन को जगाने पर बल दिया| इसका कारण यही रहा कि वेदों की जिस शिक्षा को लेकर वह चले थे उसमे मेधा बुद्धि को धारण करने की प्रेरणा दी गई थी|प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में सविता परमात्मा के तेज को धारण करने की बात कही गई है, हो हमारी बुद्धियो को सत्कर्मो में प्रेरित करती है|
दयानन्द की सर्वोपरि विशेषता उनका राष्ट्रवादी चिंतन था| वे भारत की पराधीनता, परवशता तथा दयनीय स्थिती से अत्यंत व्याकुल थे| जब सन 1857 की क्रांति की विफलता पर महारानी विक्टोरिया ने अपना घोषणा-पत्र जारी कर भारत की प्रजा को यह आश्वस्त करना चाहा की भविष्य में उसके प्रति सर्व मत-मतान्तर के आग्रह किये विना, पूर्ण न्याय के साथ तथा मातु-तुल्य वात्सल्य रखते हुए शासन किया जाए, तो सुशासन की अपेक्षा स्व-शासन को वरीयता देने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्पष्ट उद्घोष किया कि “स्वदेशी शासन ही सर्वोतम है|” किसी अन्य का शासन चाहे वह धार्मिक मतान्धता से रहित-पूर्ण न्याययुक्त माता-पिता के स्नेह तथा कृपायुक्त भी क्यों न हो, वह वरणीय नहीं होता है| 59 वर्ष की अल्पायु में 30 अक्तूबर, 1883 को अजमेर ( राजस्थान ) में महर्षि नव ” मेरे प्रभु ! तेरी इच्छा पूर्ण हो ” कहते हुए मृत्यु का वरण किया |[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]